Vinayak Damodar Savarkar|literary creation, death, Hindu Mahasabha, Biography in Hindi

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Vinayak Damodar Savarkar|literary creation, death, Hindu Mahasabha, Biography in Hindi.[ विनायक दामोदर सावरकर | साहित्यिक रचना, मृत्यु, हिंदू महासभा, जीवनी हिंदी में।]

विनायक दामोदर सावरकर का जन्म[Birth of Vinayak Damodar Savarkar]

Vinayak Damodar Savarkar ‘ हिन्दुत्व ‘ पुस्तक जो अपने में अद्वितीय है . उन्हें दार्शनिक के रूप में प्रतिष्ठित किया. 28 मई 1983 को विनायक दामोदर सावरकर[Vinayak Damodar Savarkar] का जन्म हुआ.

उनके माता पिता का नाम दामोदर और  राधाबाई सावरकर था.सावरकर का जन्म मराठी हिंदू ब्राह्मण परिवार में हुआ उनका गांव भगुर जो नासिक के पास में है.

उनके दो भाई और एक बहन है भाई का नाम गणेश सावरकर और नारायण सावरकर और एक बहन जिसका नाम मैना है.

। जब वे मेट्रिक में थे उनका विवाह यशोदा से हो गया ।

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विनायक दामोदर सावरकर का फ्री इंडिया सोसायटी ‘ का गठन[Formation of ‘Free India Society’ by Vinayak Damodar Savarkar]

सन् 1906 में ब्रिटिश सरकार ने यह घोषणा की वह भारत के कुछ प्रतिभाशाली छात्रों को छात्रवृत्ति देकर उच्च शिक्षा का प्रबन्ध करेगी । श्याम जी कृष्ण वर्मा द्वारा देश भक्त विद्यार्थियों को लंदन में पढ़ने के लिए दी जाने वाली छात्रवृति पाकर सावरकर 9 जून को बैरिस्टरी की पढ़ाई करने लंदन प्रस्थान कर गये ।

 वहां वह श्याम जी कृष्ण वर्मा द्वारा स्थापित इन्डिया हाउस में रहने के लिए आए । श्याम जी कृष्ण वर्मा और लोकमान्य तिलक की अनुशंसा पर Vinayak Damodar Savarkar लंदन जा पहुँचे । वहां उन्होंने कानून में दाखिला लिया । कुछ दिन तक स्थिति को देखा और फिर ‘ फ्री इंडिया सोसायटी ‘ का गठन कर दिया ।

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 और कुछ दिनों के अन्दर ही इन्डिया हाउस का रूपान्तरण क्रांति के कारखाने के रूप में हो गया । सावरकर जी ने लंदन में पहला बड़ा काम इटली के क्रांतिकारी मैजिनी का आत्म चरित्र और उसके राजनीतिक साहित्य का अनुवाद करके किया । इसकी प्रस्तावना आग उगलने वाली थी ।

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जिन लोगों ने सबसे पहले इसकी सदस्यताग्रहण की , उनके नामों पर एक नजर डालें । वे थे भाई परमानंद , मदन लाल र्धीगड़ा , लाला हरदयाल , सरदार हरनाम सिंह और सेनापति वापट – इस सोसायटी के गठन के दिन सावरकर ने इसके उद्देश्य को इस तरह वर्णित किया- ‘ शांति की जंग अधूरी है ।

भारत के सम्मान की रक्षा करने के लिए , इसकी अस्मिता के लिए हमें प्राणों की आहुति देने की शपथ लेनी होगी । जो भारत मां को गुलामी की बेड़ियों से जान देकर मुक्त कराना चाहें वे ही हमारे सदस्य बनें ।

‘ इस सोसायटी में गिने चुने परन्तु प्रचंड राष्ट्रभक्त आए ।

 इसी सोसायटी के सौजन्य से विनायक दामोदर सावरकर ने तीन पुस्तकें लिखीं :[Courtesy of this society Vinayak Damodar Savarkar wrote three books:]

•          मैजिनी की जीवन कथा .[The Life Story of Mazzini.]

•          सिक्खों का इतिहास.[History of the Sikhs.]

•     1857 का स्वतंत्रता समर .[Independence Summer of 1857]

सिक्खों के इतिहास के अंश अक्सर सावरकर जनसभाओं में सुनाते और मांओं से मांग करते कि हमें अजीत सिंह और जुझार सिंह जैसे बच्चों की जरूरत है । फतेह सिंह और जोरावर सिंह चाहिए ।

1857 के इतिहास में पहली बार राष्ट्र के वीरों के प्रति सम्मानपूर्ण शब्द कहे गए , अन्यथा आज तक लाल रंग में रंगे और बिके हुए इतिहासकारों ने उसे विकृत कर दिया था । खुफिया विभाग उनके पीछे पड़ गया ।

उन्होंने 1857 के इतिहास को अंग्रेजी में प्रकाशित करवा कर ब्रिटिश साम्राज्य की नींद हराम कर दी । लाला हरदयाल ने अपने अखबार ‘ गदर ‘ में इसे धारावाहिक के रूप में छापा । भारतीय युवकों को बम बनाने की जारकारी देने के लिए उन्होंने रूस से तीन व्यक्ति भारत भेजे । सारा भारत बम के धमाकों से गूंज उठा ।

लंदन में विनायक दामोदर सावरकर का गिरफ्तार[Vinayak Damodar Savarkar arrested in London]

13 मार्च 1910 को उन्हें लंदन में गिरफ्तार किया गया । एक जुलाई को पानी के जहाज द्वारा भारत भेजा गया । रास्ते में वह छलांग लगाकर समुद्र में कूद गए और फ्रांस की सीमा तक जा पहुंचे , परन्तु अंत में उन्हें अंग्रेजों को सौंप दिया गया । मुकदमा चला ।Vinayak Damodar Savarkar यरवदा जेल में बंद थे ।

 उनके वकील बने अंग्रेज बैरिस्टर वेपतिस्ता , श्री चितरे और श्री गाडगिल । उन पर अभियोग लगा कि उन्होंने बम बनाने की तकनीक भारत भेजी , क्रांति के लिए हथियार भेजे , इतिहास के माध्यम से जनभावनाएं उद्वेलित की , मदन लाल धींगरा को उकसा कर ब्रिटिश पदाधिकारी बायली को मरवाया ।

 बहुत सी मुक्त कराना मेरा प्रथम लक्ष्य । इसके लिए सतत संघर्ष करना मेरा एकमात्र बातें मनगढ़ंत भी थीं । Vinayak Damodar Savarkar ने कहा , ” राष्ट्र को गुलामी के बंधनों से ध्येय । मैंने अपनी ‘ मां ‘ से छल नहीं किया । एक स्वाभिमानी को जो करना चाहिए था , वही मैंने किया ।

 मुझे इस न्यायालय से न्याय की कोई उम्मीद नहीं । ” उन्हें सजा मिली दो बार आजन्म कारावास वहाँ से सैल्युलर जेल ( अंडमान / कालापानी ) भेजे गए और वहां जो अत्याचार उन पर किए गए उसे काश , मैं यहां लिख पाता ।

 गर्म सलाखों से बदन को दागे जाते समय ‘ वंदे मातरम् ‘ बोलना राष्ट्र भक्ति थी या चरखे चलाते हुए निष्क्रिय बैठे रहना और अहिंसा – अहिंसा चिल्लाते हुए सवेरे जेल में ठूस दिया जाना और शाम को बाहर निकल आना ।

वक्त आ गया है और जब वक्त उस दौर का वास्तविक इतिहास लिखेगा , आप यकीन रखें वह तमाम तथाकथित महान लोग जो आज तक प्रचार माध्यमों की बैसाखियों पर महान बने बैठे हैं , धूल – धूसरित हो जोयेंगे ।

विनायक दामोदर सावरकर रत्नागिरि जेल में महात्मा गांधी और वीर भगत सिंह मिले[Vinayak Damodar Savarkar met Mahatma Gandhi and Veer Bhagat Singh in Ratnagiri Jail]

 जनवरी 1921 में उन्हें भारत लाकर रत्नागिरि जेल में बंद कर दिया गया । यहाँ उनसे महात्मा गांधी और वीर भगत सिंह भी मिले । उन्होंने भगत सिंह से कहा , ” पंजाब के बेटों पर इस मुल्क को गर्व है । तुम गुरु गोविंद सिंह के पुत्र हो । राष्ट्र की रक्षा के लिए फांसी पर झूलने से भी मत घबराना ।

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 ” यह पहली प्रेरणा भगत सिंह को दी थी । गांधी सेउन्होंने कहा , “ सावधान लीगी नेताओं से  ! वह देश को तोड़ देना चाहते हैं ,नजर रखनी होगी उनकी चालों पर ।

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विनायक दामोदर सावरकर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष[Vinayak Damodar Savarkar, President of Hindu Mahasabha]

 “ 10 मई 1937 को अंतत : सावरकर आजाद हो गए । 30 दिसम्बर , 1937 को वह सर्वसम्मति से हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने । उन्होंने भारत को ‘ हिन्दू ‘ शब्द की परिभाषा दी- ‘ सिंधु से लेकर समुद्र तक फैली , इस मातृभूमि को जो अपनी पितृभूमि

और पुण्यभूमि मानता है , वही हिंदू है । ‘ 7 और 8 अक्टूबर 1944 को हिंदू महासभा नई दिल्ली में अखंड भारत सम्मेलन हुआ ।

 इसमें जगदगुरू शंकराचार्य , भरतपुर के महाराजा सवाई ब्रजेन्द्र सिंह , डाक्टर मुंजे ,हनुमान प्रसाद पोद्दार सब उपस्थित थे । चौर सावरकर ने सिंह गर्जना की ‘ भारत को खंडित करने और पाकिस्तान बनाने की मांग ने राष्ट्र के शौर्य और स्वाभिमान को चुनौती दी है ।

 ये कांग्रेसी अहिंसा की ओट में देश को विखंडित करने का षड्यंत्र रच चुके हैं ।

सावधान् राष्ट्र के हिन्दुओ जागो , अन्यथा देश के टुकड़े हो जाएंगे । ‘ उन्होंने एक बात और जोर देकर कालांतर में बार – बार कहीं- ‘ देश का बंटवारा मेरी लाश पर होगा , ऐसा बोलने वाले महात्माओं में यथार्थ के झंझावातों से जूझने की ताकत नहीं ।

 इस आश्वासन में मत रहना , जागो , नहीं तो ये कांग्रेसी नेता राष्ट्र को तोड़ देंगे ‘

 जिन्होंने राष्ट्र को झूठे आश्वासन दिए ,

जिन्होंने शेख के साथ मिलकर कश्मीर का सौदा कर दिया ,

जिन्होंने तिब्बत बेच दिया या जिन्होंने विभाजन को स्वीकार किया और

जो पेरिस भेज कर अपने कपड़े धुलवाते रहे ,

 वे आज पूजित हों या वह वीर सावरकर जिसने सर्वस्व न्यौछावर करके भी केवल एक ही आह्वान किया- अखंड भारत

स्वातंत्र्य क्रांति के दृष्टा विनायक दामोदर सावरकर [Vinayak Damodar Savarkar, the visionary of the freedom revolution]

अठारह सौ सत्तावन का स्वतंत्रता संग्राम जब अंग्रेजों ने अपनी सेना के बल पर लगभग दबा दिया तो स्वतंत्रता आंदोलन को जिन गिने चुने लोगों ने जीवित रखा उनमें वासुदेव बलवंत फड़के एवं चाफेकर बंधु प्रमुख थे ।

अंग्रेज व्यवहार 1896 में भारत वर्ष में प्लेग महामारी के रूप में फैला । मुम्बई एवं पूना भी प्लेग की लपेट में आ गये । रोग की रोकथाम के लिए रेंड साहब नामक अधिकारी की नियुक्ति की गयी ।

 ऐसे कठिन समय में पीड़ितों के साथ मानवीय के बजाय रेंड साहब के नेतृत्व में सैनिकों ने पीड़ितों के साथ दुर्व्यवहार किया एवं देशवासियों व आम नागरिकों का बड़े पैमाने पर उत्पीड़न कर आंतक फैला दिया ।

Vinayak Damodar Savarkar उस समय मात्र 13 वर्ष के थे । इस छोटी सी उम्र में इन्होंने सुधारक पत्र में तीखे सम्पादकीय लिखे ।

रेंड और आर्यस्ट को गोली मार दी गयी । परिणामस्वरूप तीनों चाफेकर बन्धुओं को फांसी दी गयी । जब यह समाचार वीर सावरकर ने समाचार पत्रों में पढ़ा तो वह बहुत बैचेन हो उठे । उनके मन में यह प्रश्न बार – बार उठने लगा कि इस कार्य को आगे कौन बढ़ायेगा ?

 बड़े विचार के बाद उन्होंने निर्णय लिया कि इस कार्य को उन्हें स्वयं करना होगा । वे घर में बने मंदिर में पहुंचे एवं कुल देवी के सामने प्रतिज्ञा ली । अपने देश की स्वाधीनता के लिए मैं सशस्त्र युद्ध में शत्रु को मारते हुए चाफेकर जी की तरह मरूंगा या शिवाजी की तरह विजयी होकर मातृभूमि के मस्तक पर स्वराज्य का राज्याभिषेक करूंगा ।

 स्वात यहीं से उनके जीवन में एक बड़ा परिवर्तन आया । सावरकर परिवार भगूर ग्राम से अब नासिक में आ बसा । वहां सावरकर जी ने कुछ राष्ट्रभक्त मित्रों को एकत्रित किया एवं मित्र मेला नाम की संस्था की स्थापना की । सावरकर जी का नारा था स्वतंत्रता साध्य और सशस्त्र क्रांति इसका साधन है ।

 वे युवकों को एकत्रित करके एवं उन्हें मित्र मेला का सदस्य बनाकर देशभक्ति एवं सशस्त्र क्रांति का प्रचार करने लगे । मित्र मेला की अन्य शाखायें खोली गयीं ।

 इस बीच समाचार पत्रों में देशवासियों को जाग्रत करने के लिए समय – समय पर लेख लिखे । जब अग्रिम पढ़ाई के लिए पूना गये तो वहां उनके कार्यों को अधिक गति मिली । जब वे मेट्रिक में थे उनका विवाह यशोदा से हो गया ।

विनायक दामोदर सावरकर का 1905 को विदेशी कपड़ों की होली[Vinayak Damodar Savarkar’s Holi of foreign clothes on 1905]

1902 में उन्होंने पूना के फर्ग्यूसन कॉलेज में प्रवेश लिया । महाराष्ट्र के पूना में एक जनसभा आयोजित की गई । सभा में सावरकर जी के नाम से परिचित हो गया । बंगभंग विरोधी आन्दोलन का समर्थन भाषण दिया तथा विदेशी माल के बहिष्कार के लिए विदेशी कपड़ों की होली जलाने का प्रस्ताव रखा ।

 प्रस्ताव तुरन्त पास हो गया । तिलक एवं परांजपे जी भी इसका समर्थन किया । 7 अक्टूबर 1905 को विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई । ( यह घटना गांधी जी द्वारा बहु प्रचारित विदेशी वस्त्रों की होली से काफी पहले की है ।

1905 में सावरकर द्वारा विदेशी वस्तुओं की होली जलाने पर गांधी जी ने उसकी आलोचना यह कहते हुए की थी कि यह काम घृणा एवं हिंसा का आधार है ।

यह अलग बात है कि इसके ठीक 17 वर्ष बाद 21-11-1921 के असहयोग आन्दोलन के समय स्वयं गांधी जी ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई । ) इस घटना के परिणामस्वरूप फर्ग्युसन कॉलेज के संचालकों ने सावरकर जी पर 10 रु . का जुर्माना ( जो उन दिनों एक बड़ी रकम मानी जाती थी ) किया

और फिर कॉलेज एवं छात्रावास से निकाल दिया । जुर्माने की राशि छात्रों द्वारा चन्दा करके जमा की गई ।

विनायक दामोदर सावरकर का अभिनव भारत नामक गुप्त संस्था का गठन[Vinayak Damodar Savarkar formed a secret organization called Abhinav Bharat]

 बाद में मुम्बई विश्वविद्यालय से उन्होंने बी . ए . पास की । परीक्षा इस बीच सावरकर जी ने अभिनव भारत नामक गुप्त संस्था का गठन किया , और मित्र मेला को इसमें मिला दिया । यह संस्था विशुद्ध रूप से देश की स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारियों का संगठन थी ।

 कुछ समय पश्चात सावरकर जी कानून की पढ़ाई करने मुंबई गये । वहाँ भी वे अभिनव भारत की नई शाखाएं खोलने और साप्ताहिक ‘ बिहारी ‘ में लेख लिखने में तल्लीन रहे ।

 धीरे – धीरे में भी तेजी आने लगी । अभिनव भारत की शाखाएं पूरे भारत में फैलने लगीं कि भारत के युवक इससे प्रेरणा लेकर क्रांति के मार्ग पर अग्रसर हों ।

 सावरकर जी का सबसे महत्वपूर्ण कार्य था उनके द्वारा लिखा गया ‘ 1857 का स्वंतत्रता समर ‘ ग्रन्थ जिसे उन्होंने कई महीनों तक ब्रिटिश सरकार की इंडिया ऑफिस की लाइब्रेरी में बैठ कर -1500 पुस्तकों एवं सरकारी अभिलेखों का अध्ययन करके लिखा तथा प्रमाणित किया कि 1857 की क्रांति गदर न होकर भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम थी ।

 किसी प्रकार इसकी एक प्रति भारत भिजवायी गयी तथा सावरकर जी के बड़े भाई श्री गणेश सावरकर ने इसे गुप्त रूप से छपवाया । कालांतर में भगत सिंह एवं सुभाष चन्द्र बोस ने भी गुप्त रूप से इसे छपवाकर क्रांतिकारियों के बीच वितरित किया । क्रांतिकारियों ने इसे गीता का स्थान दिया ।

 इसके साथ ही सावरकर ने अपने साथियों के साथ मिलकर 1907 में लंदन में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का अर्धशताब्दी समारोह ब्रिटिश शासन के विरोध के बावजूद धूमधाम से मारे मनाया ।

 भारत के क्रांतिकारियों को शस्त्रपूर्ति इस बीच सावरकर लंदन में पिस्तौल आदि खरीद कर उन्हें किताबों एवं बाइबिल की प्रतियों में पृष्ठों को काट कर बनाई जगहों में रखकर भारत के क्रांतिकारियों को भेजते रहे ।

 दूसरी ओर रूस के क्रांतिकारियों से बात कर उन्होंने सेनापति बापट एवं हेमचन्द्र दास को पेरिस बम मेनुअल की प्रति लेने के लिए भेजा जो रूसी भाषा में था तथा उसका अनुवाद करके उसकी अनेक प्रतियां गुप्त रूप से भारत के क्रांतिकारियों को वितरित की ।

 भारतीय क्रांतिकारियों को ब्रिटिश शासन से लड़ने के लिए बम का परिचय सावरकर जी द्वारा ही कराया गया । इस बीच भारत एवं ब्रिटेन में क्रांतिकारी गतिविधियां चरम पर पहुंच गय थी । भारत में अनेक ब्रिटिश अफसरों एवं राजनायकों की हत्या उनके द्वारा किये गये मानवीय कृत्यों के बदले की कार्यवाही के रूप में की गई ।

 लंदन में भी भरी सभा में मदन लाल ढींगरा ने सर कर्जन वायली को पिस्तौल से उड़ा दिया ।ढींगरा द्वारा दिया गया बयान पुलिस ने गायब कर दिया । सावरकर ने अपने अथक प्रयासों से ढींगरा की फांसी से कुछ दिन पहले ही इसे अखबारों में छपवा दिया ।

 उसमें कहा गया था कि जिस राष्ट्र को विदेशी संगीनों की सहायता से गुलाम बना कर रखा जाता है वह राष्ट्र निरंतर युद्ध की स्थिति में रहता है । निशस्त्र जाति के लिए खुले तौर पर लड़ाई करना संभव नहीं होता इसलिए मैंने अचानक हमला किया । मुझे तोप नहीं मिल सकती थी इसलिए मैंने पिस्तौल का उपयोग किया ।

 हिन्दू होने के नाते मेरा दृढ़ विश्वास है कि किसी के द्वारा भी देश के प्रति किया गया अपराध , भगवान के प्रति किया गया अपराध है । अतः बदले की कार्यवाही में मैंने यह हत्या की ।

  विनायक दामोदर सावरकर ने समुद्र में छलांग लगाई[Vinayak Damodar Savarkar jumped into the sea]

 ब्रिटिश सरकार कांप उठी और इन सब गतिविधियों का सम्बन्ध सावरकर से लगाया गया । उन्हें गिरफ्तार कर उनके ऊपर ब्रिटेन के खिलाफ युद्ध करने का आरोप लगाया गया तथा मुकद्मा चलाने के लिए मोरिया नामक जहाज से भारत भेजा गया ।

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 रास्ते में सावरकर जी ने सिपाही से शौच हेतु संडास जाने के लिए कहा और वे संडास का दरवाजा अन्दर से बंद करके लैट्रिन के पोर्ट होल से समुद्र में कूद गये । बाहर खड़े सैनिकों को जब इसका पता चला तो उन्होंने में नावों को समुद्र में उतारा ।

आगे आगे सावरकर और पीछे पीछे नावों से सिपाही उन पर गोलियां चलाते रहे । इस प्रकार वह तैरते हुए फ्रांस के मार्सलिस बंदरगाह पहुंच कर फ्रांस की धरती पर पांच छ : सौ गज दौड़ते हुए एक फ्रांसीसी सिपाही के पास पहुंचे तथा उससे कहा कि वो उन्हें गिरफ्तार कर अदालत ले जायें ।

 सिपाही अंग्रेजी नहीं जानता था इस कारण वो बात न समझ सका । मैडम कामा आदि उनके अन्य साथी जो उन्हें ब्रिटिश पुलिस के पंजे से मुक्त कराने टैक्सी लेकर पहुंचने वाले थे रेलगाड़ी का फाटक बंद होने के कारण आधा घंटा लेट पहुंचे ।

तभी ब्रिटिश सिपाहियों ने आकर फ्रांसीसी सिपाही को घूस दे दी और सावरकर को लेकर वापस जहाज में आ गये । विश्वभर में इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुई । विशेषतः फ्रांस के अखबारों में तूफान मच गया कि फ्रांस की भूमि पर आकर ब्रिटिश सैनिकों ने सावरकर • गिरफ्तार किया ।

 फ्रांस के प्रधानमंत्री को जनाक्रोश का सामना करना पड़ा । परिणामस्वरूप उन्हें सरकार से त्यागपत्र देना पड़ा । फ्रांस एंव ब्रिटेन के मध्य विवाद के कारण सावरकर का मुकदमा हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में चला ।

 जिसे खारिज कर दिया गया । तदोपरांत भारत में ब्रिटिश न्यायालय ने सावरकर जी को 2 जन्मों अर्थात 50 वर्ष के श्रम कारावास की सजा सुना कर उन्हें अंडमान काले पानी के लिए भेज दिया

विनायक दामोदर सावरकर का जेल में साहित्य सृजन[Literature creation of Vinayak Damodar Savarkar in jail]

अंदमान में सावरकर को तोड़ने के लिए उनके ऊपर अनेक प्रकार के अमानवीय अत्याचार किये गये । उन्हें कोल्हू में बैलों के स्थान पर जोता गया नारियल की जूट कूटने का कार्य दिया गया तथा सेलूलर जेल में बेड़ियों में रखा गया । सावरकर का स्वास्थ्य गिरता गया पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी ।

ऐसे में भी जहाँ एक इन्च कागज का टुकड़ा किसी के पास मिलने पर कोड़ों की सजा दी जाती थी उन्होंने जेल में , कील एवं काँटों की सहायता से दीवारों पर लिखकर साहित्य सृजन किया तथा उसे याद करके साल भर बाद दोबारा दीवारों की पुताई होने के बाद पुनः लिखा ।

 पंद्रह सौ पंक्तियों की कमला नामक कविता भी लिखी । ‘ हिन्दुत्व ‘ पुस्तक जो अपने में अद्वितीय है ने उन्हें दार्शनिक के रूप में प्रतिष्ठित किया । जापानी समुद्री जहाजों के हमले की आशंका से उन्हें अंदमान से रत्नगिरी जेल लाया गया ।

 लगातार बढ़ते दबावों के कारण जेल कानून में सुधार के चलते राजनैतिक कैदियों को कुछ ढील दी गयी 1924 में उन्हें प्रतिबन्धों के साथ रत्नगिरी में नजर बंद श्रेणी में रखा गया । इस समय उन्होंने अपनी सारी शक्ति सामाजिक सुधारों और अस्पृश्यता निवारण में लगाई ।

 रत्नगिरी में पतित पावन मंदिर का निर्माण करवाया जहाँ अस्पृश्य समझे जाने वाले लोगों को जाने की पूरी छूट थी । पुजारी भी अस्पृश्य जाति का एक पढ़ा लिखा युवक बनाया गया ।

विनायक दामोदर सावरकर का की मुक्ति के समय भारत का राजनीतिक एवं सैनिकीय परिदृश्य[Political and military scenario of India at the time of liberation of Vinayak Damodar Savarkar]

वीर सावरकर की मुक्ति के समय भारत का राजनीतिक एवं सैनिकीय परिदृश्य सन् 1937 में वीर सावरकर को पूर्णयता मुक्त किया गया । देशभर में उनके सम्मान में सभायें की गयीं ।

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 पं . जवाहरलाल नेहरु , नेताजी सुभाष , राजगोपालाचारी सहित कांग्रेस के लगभग सभी बड़े नेताओं ने उन्हें कांग्रेस में आमंत्रित किया । सावरकर जी के कारावास की अवधि में देश का राजनैतिक परिदृश्य बहुत बदल चुका था ।

 कांग्रेस का नेतृत्व लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद पूर्णरूप से गांधी जी के हाथों में आ चुका था । अंग्रेजी सरकार के उकसावे से मुसलमानों में साम्प्रदायिकता की भावना एक बार फिर उच्चतम स्तर पर थी । मुसलमानों ने अपना अलग नेतृत्व मुस्लिम लीग के रूप में ढूंढ लिया था तथा उनकी ओर से देश के विभाजन की मांग होने लगी थी ।

 उन्हें देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं से भी अधिक अधिकार चाहिये थे । ऐसे में गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस हिन्दू मुस्लिम एकता की मृग मरीचिका के पीछे दौड़ते – दौड़ते मुस्लिम तुष्टीकरण पर उतर आयी थी ।

कांग्रेस इस प्रक्रिया में बार – बार हिन्दू हितों की अवहेलना करते हुए मुस्लिमों की अन्यायपूर्ण मांगों के आगे झुकती जा रही थी । दब्बूपन की इसी नीति से जहाँ मुस्लिम साम्प्रदायिकता को और बढ़ावा मिला वहीं उनकी ओर से नित नयी राष्ट्रविरोधी मांगें की जाने लगीं ।

 इसी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति अन्तर्गत सितम्बर 1916 को लखनऊ में कांग्रेस ने मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक आधार पर हिन्दू मुस्लिमों के लिये अलग – अलग चुनाव की मांग को मान लिया ।

 इस लखनऊ संधि के विरोध में हिन्दू महासभा का अधिवेशन हरिद्वार हुआ । हिन्दू महासभा के सचिव पं . देवरतन शर्मा ने कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग की इस संधि का विरोध करते हुए कहा कि ” लखनऊ में कांग्रेस ने भारत विभाजन का बीजारोपण कर दिया है । “

विनायक दामोदर सावरकर और सुभाष चन्द्र बोस के बीच भेंट[Meeting between Vinayak Damodar Savarkar and Subhash Chandra Bose]

इसी बीच सावरकर को इस सैनिकीकरण के लिए कार्य करने का एक और अवसर प्राप्त हुआ । जब 29 जून , 1940 को सुभाष बाबू सावरकर जी से मिलने ‘ सावरकर सदन ‘ आये ।

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 वार्तालाप के समय सावरकर जी ने सुभाष बाबू को अपने और रासबिहारी बोस के बीच हुए पत्रव्यवहार के बारे बताया कि किस प्रकार उन्होंने जापान में 50,000 भारतीयों की एक सेना गठित की है तथा उनका अनुमान है कि जापान शीघ्र ही इस विश्वयुद्ध में ब्रिटेन के विरुद्ध भाग लेगा तथा

 वह इस सेना की कमांड अब किसी योग्य भारतीय युवक को सौंपना चाहते हैं । इसके साथ ही उन्होंने सुभाष बाबू को परामर्श दिया कि वह किसी प्रकार चुपचाप देश के बाहर निकल जायें तथा जापान जा कर रासबिहारी बोस से मिलें ।

इस सम्बन्ध में शेष प्रबन्ध करने के लिए भी उन्होंने सुभाष बाबू को आश्वस्त कर दिया । ठीक 6 महीने बाद 16 जनवरी 1941 को अचानक सुभाष बाबू चुपचाप देश से निकल गये तथा जापान जा कर उन्होंने आई . एन . ए . की कमांड संभाली और

सावरकर जी की योजनानुसार देश को स्वतन्त्र कराने के लिए बाहर से आक्रमण कर दिया । जहां कांग्रेसी नेता सेना में भर्ती के आह्वान के कारण वीर सावरकर एवं हिन्दू महासभा के विरुद्ध दुष्प्रचार कर रहे थे .

वहीं नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने 25-6-1944 को फ्री इंडिया रेडियो सिंगापुर से दिये अपने आखिरी भाषण में  प्रशंसा करते हुए कहा की सावरकरजी – “ जब कांग्रेस के अधिकतर नेता दूरदृष्टि के अभाव में भाड़े के टट्टू कहकर भारतीय सैनिकों  की बुराई कर रहे थे ,

 यह देखकर प्रसन्नता और संतोष होता है कि केवल वीर सावरकर ही निर्भीकता पूर्वक भारतीय युवकों को सेना में भर्ती होने के लिये कह रहे हैं । आज वही युवक हमारी इंडियन नेशनल आर्मी को प्रशिक्षित सैनिकों के रूप में मिल रहे हैं । “

राजनीति में भाग और हिन्दू महासभा के अध्यक्ष[Participated in politics and President of Hindu Mahasabha]

1937 में वीर सावरकर की दृष्टिबंदी समाप्त हो गई और वे राजनीति में भाग ले सकते थे । उसी वर्ष वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये जिसके उपाध्यक्ष डॉ . हेडगेवार थे ।

1937 में हिन्दू महासभा का भव्य अधिवेशन कर्णावती ( अहमदाबाद ) में हुआ । इस अधिवेशन में वीर सावरकर के भाषण को ‘ हिन्दू राष्ट्र दर्शन ‘ के नाम से जाना जाता है ।

1938 में वीर सावरकर द्वितीय बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये और यह अधिवेशन नागपुर में रखा गया । इस अधिवेशन का उत्तरदायित्व पूरी तरह से आर.एस.एस. के स्वयंसेवकों द्वारा उठाया गया ।

 इसका नेतृत्व उनके मुखिया डॉ . हेडगेवार ने किया था । उन्होंने वीर सावरकर के लिए असीम श्रद्धा जताई । पूरे नागपुर शहर में एक विशाल जुलूस निकाला गया ,

जिसमें आगे – आगे श्री भाऊराव देवरस जो आर.एस.एस. के स्वयंसेवक थे – वे अपने हाथ में भगवा ध्वज लेकर  हाथी पर चल रहे थे ।

हिन्दू महासभा व आर.एस.एस. के मध्य कड़वाहट[Hindu Mahasabha and RSS bitterness between]

1939 के अधिवेशन के लिए भी Vinayak Damodar Savarkar तीसरी बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये थे । यह हिन्दू महासभा का अधिवेशन कलकत्ता में रखा गया ।

 इसमें भाग लेने वालों में डॉ . श्यामाप्रसाद मुखर्जी , श्री निर्मल चन्द्र चटर्जी ( कलकत्ता उच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश ) , गोरक्षपीठ गोरखपुर के महन्त श्री दिग्विजयनाथ जी , आर.एस.एस. प्रमुख डॉ . हेडगेवार और उनके सहयोगी श्री एम.एस. गोलवलकर और श्री बाबा साहिब गटाटे भी थे ।

 जैसे कि ऊपर बताया गया है कि वीर सावरकर पहले ही उस अधिवेशन के लिए अध्यक्ष चुन लिये गये थे , परन्तु हिन्दू महासभा के अन्य पदों के लिए चुनाव अधिवेशन के मैदान में हुए ।

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 सचिव के लिए तीन प्रत्याशी थे – ( 1 ) महाशय इन्द्रप्रकाश , ( 2 ) श्री गोलवलकर और ( 3 ) श्री ज्योतिशंकर दीक्षित । चुनाव हुए और उसके परिणामस्वरूप महाशय इन्द्रप्रकाश को 80 वोट , श्री गोलवल्कर को 40 वोट और श्री ज्योतिशंकर दीक्षित को केवल 2 वोट प्राप्त हुए ।

 इस प्रकार महाशय इन्द्रप्रकाश हिन्दू महासभा कार्यालय सचिव के पद पर चयनित घोषित हुए । श्री गोलवल्कर को इस हार से इतनी चिढ़ हो गई कि वे अपने कुछ साथियों सहित हिन्दू महासभा से दूर हो गये ।

 अकस्मात जून 1940 में डॉ . हेडगेवार की मृत्यु के बाद उनके स्थान पर श्री गोलवल्कर को आर.एस.एस. प्रमुख बना दिया गया ।

आर.एस.एस. के प्रमुख का पद सँभालने के पश्चात् उन्होंने श्री मारतन्डेय राव जोग जो स्वयंसेवकों को सैनिक शिक्षा देने के प्रभारी थे को किनारे कर दिया जिससे आर.एस.एस. की पराक्रमी शक्ति प्रायः समाप्त हो गयी ।

 श्री गोलवलकर के मन में Vinayak Damodar Savarkar के लिए इतना आदर सम्मान का भाव नहीं था जितना कि डॉ . हेडगेवार के मन में था. वीर सावरकर को आदर्श पुरुष मानते थे डॉ . हेडगेवार.

विनायक दामोदर सावरकर की मृत्यु 26 /2/1966 मुंबई में हुई.[Vinayak Damodar Savarkar died on 26/2/1966 in Mumbai.]

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